भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब न रहो दूर / राधेश्याम बन्धु
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:13, 14 अप्रैल 2011 का अवतरण
याद की मुंडेरी पर
टेर रहा
द्वार-द्वार मधुऋतु का प्यार,
अब न
रहो दूर खिले आँगन कचनार ।
सरसों को रिझा रही
अलसी की डालियाँ,
मेढों पर इठलाती
गेहूँ की बालियाँ ।
बनजारिन
गन्ध लिखे पत्र बार-बार ।
कभी-कभी होती है
नयनों से बात,
उम्र भर महकती है
एक मुलाकात ।
करे रात
रात एक गन्ध इन्तजार।
याद की मुंडेरी पर
कागा का शोर,
भिगो-भिगो जाता है
काजल की कोर ।
सूनापन
राह तके खडे-खडे द्वार,
अब न
रहो दूर खिले आँगन कचनार