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ख़त्म इंसां की यूं ज़िन्दगानी हुई / मोहम्मद इरशाद

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ख़त्म इंसाँ की यूँ ज़िन्दगानी हुई
जैसे किस्सा या कोई कहानी हुई

वो समझ ना सका मेरे दिल की कही
उससे हर बात मेरी ज़वानी हुई

हमसे आख़िर ख़फा वो हुए किस लिए
कोई हमसे ही शायद नादानी हुई

उसने शिद्दत से देखा मेरे जख़्मों को
मेरी रग-रग में ख़ूँ की रवानी हुई

तुम भी ‘इरशाद’ ख़ुद के लिए जीत हो
जीते हो तो ये क्या ज़िन्दगानी हुई