भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बँटने लगे धूल के परचे / विनोद निगम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:15, 23 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद निगम }} {{KKCatNavgeet}} <poem> फिर बज उठे हवा के नूपुर फू…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर बज उठे हवा के नूपुर
फूलों के, भौरों के चर्चे
खुले आम, आँगन-गलियारों
बँटने लगे धूल के पर्चे !

जाने क्या, कह दिया दरद ने
रह-रह लगे, बाँस वन बजने
पीले पड़े फ़सल के चेहरे
वृक्ष धरा पर लगे उतरने

पुरवा, लगी तोड़ने तन को
धारहीन पछुआ के बरछे !

बैर भँजाने हमसे, तुमसे
मन हारेगा फिर मौसम से
निपटे नहीं हिसाब पुराने
तन, रस, रूप, अधर, संयम से

फूलों से बच भी जाएँ तो
गँधों के तेवर हैं तिरछे !