आख़िरी मुलाक़ात / अख़्तर-उल-ईमान
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत <ref>प्रेम की मृत्यु का महोत्सव</ref>मनाएँ हम
आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िन्दा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क़ के
है शम-ए-अंजुमन का नया हुस्न-ए-जाँ गुदाज़<ref>पिघलता हुआ</ref>
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले<ref>उत्साह, उमंग</ref>
ताज़ा न रख सकेगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर
वो फ़ित्नासर<ref>पाग़ल</ref> गए जिन्हें काँटें अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएँ हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएँ हम
सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना<ref>पुरातन प्रेम</ref> याद आए
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभले हुए तो हैं, पर ज़रा डगमगा तो लें ।
उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज