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पद 211 से 220 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2

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पद संख्या 213 तथा 214

(213)
 
हरि -सम आपदा -हरन।
 नहिं कोउ सहज कृपालु दुसह दुख-सागर -तरन।1।

गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन।
दीन बचन सुनि चले गरूड़ तजि सुनाभ-धरन।2।

द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन।
‘हा हरि पाहि’ कहत पुरे पट बिबिध बरन।3।

इहै जानि सुर-नर-मुनि-कोबिद सेवत चरन।
तुलसिदास प्रभु केा न अभय कियो नृग-उद्धरन।4।

(214)
 
ऐसी कौन प्रभुकी रीति?
बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति।1।

गई मारन पूतना कुचा कालकूट लगाइ।
मातुकी गति दई ताहि कृपालु जदवराइ।2।

काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह।
जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह।3।

नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देह गनि गनि गारि।
 कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि।4।

 ब्याध चित दै चरन मार्यो मूढमति मृग जानि।
सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि।5।

कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरू अघ दोउ।
 प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ।6।