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अंगद जी का दूतत्व / तुलसीदास/ पृष्ठ 1

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( छंद संख्या (9) से (10) )
(9)

 ‘आयो! आयो! आयो सोई बानर बहोरि!’ भयो,
सोरू चहुँ ओर लंका आएँ जुबराजकें।


 एक काढैं़ सौंज, एक धौंज करैं, ‘कहा ह्वैहै,
पोच भाई’, महासोचु सुभअसमाज कें।।

 गाज्यो कपिराजु रघुनाथकी सपथ करि ,
 मूँदे कान जातुधान मानो गाजें गाजकें।

सहमि सुखात बातजातकी सुरति करि,
 लवा ज्यों लुकात, तुलसी झपेटें बाजकें।9।

(10)

तुलसी बल रघुबीरजू कें बालिसुतु
वाहि न गनत, बात कहत करेरी -सी।

‘बकसीस ईसजू की खीस होत देखिअत,
 रिस काहें लागति, कहत हौं मै तेरी-सी।।

चढ़ि गढ़-मढ़ दृढ़, कोटकें कँगूरें,
कोपि, नेकु धका देहैं ढेलनकी ढेरी-सी।।

सुनु दसमाथ! नाथ-साथके हमारे मपि
हाथ लंका लाइहैं तौ रहेगी हथेरी-सी।10।