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अंगद जी का दूतत्व / तुलसीदास / पृष्ठ 2
Kavita Kosh से
( छंद संख्या 11 से 12 )
(11)
दूषनु, बिराधु, खरू, त्रिसिरा, कबंधु बधे,
तालाऊ बिसाल बेधे, कौतुकु है कालिको।
एक ही बिसिष बस भयो बीर बाँकुरो सो,
तोहू है बिदित बलु महाबली बालिको।।
‘तुलसी’ कहत हित मानतो न नेकु संक,
मेरो कहा जैहै, फलु पैहै तू कुचालिको।
बीर-करि -केसरी कुठारपानि मानी हारि,
तेरी कहा चली, बिड़! तेासे गनै घालि को।।
(12)
तोसों कहौं दसकंघर रे, रघुनाथ बिरोधु न कीजिए बौरे।
बालि बली, खरू, दूषनु और अनेक गिरे जे-जे भीतिमें दौरे।।
ऐसिअ हाल भई तोहि धौं, न तु लै मिलु सीय चहै सुखु जौं रे।
रामके रोष न राखि सकैं तुलसी बिधि, श्रीपति, संकरू सौ रे।12।