भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंगद जी का दूतत्व / तुलसीदास / पृष्ठ 1

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


( छंद संख्या 9 से 10 )

(9)

 ‘आयो! आयो! आयो सोई बानर बहोरि!’ भयो,
सोरू चहुँ ओर लंका आएँ जुबराजकें।


 एक काढैं़ सौंज, एक धौंज करैं, ‘कहा ह्वैहै,
पोच भाई’, महासोचु सुभअसमाज कें।।

 गाज्यो कपिराजु रघुनाथकी सपथ करि ,
 मूँदे कान जातुधान मानो गाजें गाजकें।

सहमि सुखात बातजातकी सुरति करि,
 लवा ज्यों लुकात, तुलसी झपेटें बाजकें।9।

(10)

तुलसी बल रघुबीरजू कें बालिसुतु
वाहि न गनत, बात कहत करेरी -सी।

‘बकसीस ईसजू की खीस होत देखिअत,
 रिस काहें लागति, कहत हौं मै तेरी-सी।।

चढ़ि गढ़-मढ़ दृढ़, कोटकें कँगूरें,
कोपि, नेकु धका देहैं ढेलनकी ढेरी-सी।।

सुनु दसमाथ! नाथ-साथके हमारे मपि
हाथ लंका लाइहैं तौ रहेगी हथेरी-सी।10।