भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझे अकेला ही रहने दो / गोपालशरण सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:27, 4 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपालशरण सिंह }} {{KKCatGeet}} <poem> रहने दो मुझको निर्जन मे…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रहने दो मुझको निर्जन में
काँटों को चुभने दि तन में
मैं न चाहता सुख जीवन में
करो न चिंता मेरी मन में
घोर यातना ही सहने दो
मुझे अकेला ही रहने दो !

मैं न चाहता हार बनूँ मैं
या कि प्रेम उपहार बनूँ मैं
या कि शीश-शृंगार बनूँ मैं
मैं हूँ फूल मुझे जीवन की
सरिता में ही तुम बहने दो
मुझे अकेला ही रहने दो !

नहीं चाहता हूँ मैं आदर
हेम और रत्नों का सागर
नहीं चाहता हूँ कोई वर
मत रोको इस निर्मम जग को
जो जी में आए कहने दो
मुझे अकेला ही रहने दो !