भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केवल रामहीसे मांगो / तुलसीदास/ पृष्ठ 3

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:33, 6 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
उद्बोधन-1

( छंद 29 से 34 तक)

(29)

सुनु कान दिएँ , नितु नेमु लिएँ रघुनाथहिके गुनगाथहि रे।।
सुखमंदिर सुंदर रूपु सदा उर आनि धरें धनु-भाथहिं रे।।

रसना निसि-बासर सादर सों तुलसी! जपु जानकीनाथहिं रे।
करू संग सुसील सुसंतन सों, तजि क्रूर , कुपंथ कुसाथहि रे।।
 
(30)

सुत, दार, अगारू ,सखा, परिवारू बिलोकु महा कुसमाजहि रे।
सबकी ममता तजि कै, समता सजि, संतसभाँ न बिराजहिं रे।।

नरदेह कहा, करि देखु बिचारू, बिगारू गँवार न काजहिं रे।।
जनि डोलहि लोलुप कूकरू ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहिं रे।।