भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केवल रामहीसे मांगो / तुलसीदास/ पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:36, 6 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
उद्बोधन-2

( छंद 31 से 32 तक)

 (31)

 बिषया परनारि निसा-तरूनाई सो पाइ पर्यो अनुरागहि रे।
जमके पहरू दुख, रोग बियोग बिलोकत हू न बिरागहि रे।।

ममता बस तैं सब भूलि गयो, भयो भोरू भय, भागहिं रे।
जरठाइ दिसाँ, रबिकालु उग्यो, अजहूँ जड़ जीव! न जागहिं रे।।

(32)
  
जनम्यो जेहिं जोनि, अनेक क्रिया सुख लागि करीं, न परैं बरनी।
जननी-जनकादि हितू भये भूरि बहोरि भई उरकी जरनी। ।

तुलसी! अब रामको दासु कहाइ, हिएँ धरू चातककी धरनी।
 करि हंसकेा बेषु बड़ो सबसों , तजि दे बक-बायसकी करनी।।