भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साम्प्रदायिक दंगों के दिनों में / उषा उपाध्याय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:25, 7 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उषा उपाध्याय |संग्रह= }} Category: गुजराती भाषा {{KKCatKavita}}…)
यक्ष
मेरे शहर की
रोती आँख पोंछता पवन
इस वर्षा-ऋतु में अब
किस यक्ष का संदेश लेकर जाते हुए
मेघ का
सहचर बनेगा ?
हिंस्त्र-पशु
दिन में
किसी हिंस्त्र-पशु की तरह
आँखों में ख़ून भरे
चीते की तरह लपकता हुआ,
ज़ूनून से जबडा फाड़कर
कराल पंजा उठाता
मेरा यह शहर
रात को
शांत हो जाता है
हिचकी खाते-खाते
माँ की गोद में सो गए
बच्चे की तरह
'बौद्ध-भिक्षु
मेरे शहर के
भड़-भड़ जलते मकानों की
अंगार-राशि को भला
कल्पना-दरिद्र उस प्राकृत कवि ने
हाल में कहाँ देखा होगा ?
अन्यथा वह
फागुन में खिलकर
झर-झर झरकर
धरती पर बिछते
पलाश के फूलों को
बुद्ध के चरणों में
समर्पण करते भिक्षुओं की उपमा
कभी नहीं देता....
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा