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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 14
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रामप्रेम ही सार है-14
(63)
रावरो कहावौं, गुनु गावौं राम! रावरोइ,
रोटी द्वै हौं पावौं राम! रावरी हीं कानि हौं।
जहान जहानु, मन मेरेहूँ गुमानु बड़ो,
मान्यो मैं न दूसरो, न मानत, न मानहौं।।
पाँचकी प्रतीति न भरोसो मोहि आपनोई,
तुम्ह अपनायो हौं तबैं हीं परि जानिहौं।।
गढ़ि-गुढ़ि छोलि-छालि कुंदकी-सी भाईं बातैं,
जैसी मुख कहौं , तैसी जीयँ जब आनिहौं।।
(64)
बचन, बिकारू, करतबउ खुआर, मनु,
बिगत-बिचार, कलिमलको निधानु है।
रामको कहाइ, नामु बेचि-बेचि , खाइ सेवा,
संगति न जाइ, पाछिलेकेा उपखानु है।
तेहू तुलसीको लोगु भलो-भलो कहै, ताको,
दूसरो न हेतु , एकु नीकें कै निदानु है।
लोकरीति बिदित बिलोकिअत जहाँ-तहाँ,
स्वामीकें सनेहँ स्वानहू को सनमानु है।।