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अनुभवी स्त्रियाँ / रवीन्द्र दास

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अपनी मादा संतानों को
कई-कई रूपों में
कभी माँ, मौसी, भाभी या बड़ी दीदी बनकर
कभी सास, जिठानी, दादी या पड़ोसन बनकर
बताती रहती हैं
अपने अपने अनुभव
तजुर्बे का अहसास
स्त्री होने की पीड़ा,
कि बेटा, सहना ही होता है हम स्त्रियों को सब कुछ।
हो सकता है कि नहीं होता हो
बताने का ढंग
कवितामय , भावनापूर्ण अथवा सहृदय
कभी उलाहना , कभी परंपरा के नाम
तो कभी जिम्मेदारियों के अहसास की शक्ल में
लेकिन बताती रही हैं
सनातन से
अनुभवी स्त्रियाँ
अपने स्त्री होने की दारुण त्रासदी
दिखती हो सकती है कोई अनुभवी स्त्री
किसी दूसरी को प्रताड़ित करती हुई सी
किन्तु होता है वह दरअसल
एक बयान
यह उस सुनने-समझने वाली स्त्री पर निर्भर है
कि वह इसे समझती कैसे है ?
अनुभवी स्त्रियाँ
भिन्न-भिन्न भंगिमाओं से बताती रहती है
अपनी त्रासद व्यथा
अपनी मादा संतानों को।