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रामगुणगान / तुलसीदास/ पृष्ठ 4

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रामप्रेम की प्रधानता-1

 ( छंद 117 से 118 तक)

(117)

को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहि कीन्हों?
 को न लोभ उृढ़ फंद बाँधि त्रासन करि दीन्हो?

 कौन हृदयँ नहि लाग कठिन अति नारि-नयन-सर?
 लोचनजुत नहिं अंध भयो श्री पाइ कौन नर?

सुर-नाग-लोक महिमंडलहुँ को जु मोह कीन्हो जय न?
 कह तुलसिदासु सो ऊबरै, जेहि राख रामु राजिवनयन?

(118)

भौंह -कमान सँधान सुठान जे नारि-बिलाकनि -बानतें बाँचे।
कोप-कृसानु गुमान-अवाँ घट-ज्यों जिनके मन आव न आँचे।।

लोभ सबै नटके बस ह्वै कपि-ज्यों जगमें बहु नाच न नाचै।
नीके हैं साधु सबै तुलसी , पै तेई रघुबीरके सेवक साँचे।।