भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पराजित हो गये / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
लो पराजित हो गए
लो पराजित हो गए फिर
कँपकपाते दिन
ढोलकों की थाप पर
गाने लगा फागुन
बज उठी मंजीर खँझरी
पर सुहानी धुन
आ गये मिरदंग ढफ
झाँझें बजाते दिन
खिल उठे फिर ढाक, सेमल
के अरूण हो गात
आ गए श्रीहीन तरूओं
पर सुकेामल पात
छू गए मन केा बसन्ती
गुनगुनाते दिन
बोल मुखरित हो उठे
फिर नेह सरगम के
कसमसाने लग गए
जड़-बन्ध संयम के
आ गए फिर प्यार का
मधुरस लुटाते दिन