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खजुराहो और फायर / रमेश नीलकमल

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फिलवक्त मैं फायर की नहीं

आग के बारे में सोच रहा हूँ

जो आग-सी यातना के साथ

मेरे भीतर लपलपा रही है

बाजार के आगोश में

हो रहे हैं हमसब कैद

रिश्तों में लग रही है आग

मानवीय गुणों की जल रही है होली

जंगल-जंगल हो गया है

सारा देश

सारी धरती

तब खजुराहो के मंदिरों में

गूंजती फायर-फायर की आवाज

बेतुकी है।

अच्छा हो

हम बेतुकी बातों पर

ध्यान देना बन्द कर दें

अनर्गल बहसों में न उलझें

केवल याद रखें

‘आग’

जो हमारे-आपके भीतर

लपलपा रही है

अगर हम चूके

उसे सँभालने में

अपने भले के लिए नहीं किया

उसका इस्तेमाल

तो ‘फायर’ भले बचे

आग नहीं बचेगी

हमारी-आपकी

पहचान के लिए भी।