भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खजुराहो और फायर / रमेश नीलकमल
Kavita Kosh से
योगेंद्र कृष्णा (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:38, 20 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश नीलकमल |संग्रह=कविताएं रमेश नीलकमल की / रमे…)
फिलवक्त मैं फायर की नहीं
आग के बारे में सोच रहा हूँ
जो आग-सी यातना के साथ
मेरे भीतर लपलपा रही है
बाजार के आगोश में
हो रहे हैं हमसब कैद
रिश्तों में लग रही है आग
मानवीय गुणों की जल रही है होली
जंगल-जंगल हो गया है
सारा देश
सारी धरती
तब खजुराहो के मंदिरों में
गूंजती फायर-फायर की आवाज
बेतुकी है।
अच्छा हो
हम बेतुकी बातों पर
ध्यान देना बन्द कर दें
अनर्गल बहसों में न उलझें
केवल याद रखें
‘आग’
जो हमारे-आपके भीतर
लपलपा रही है
अगर हम चूके
उसे सँभालने में
अपने भले के लिए नहीं किया
उसका इस्तेमाल
तो ‘फायर’ भले बचे
आग नहीं बचेगी
हमारी-आपकी
पहचान के लिए भी।