भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीतावली अयोध्याकाण्ड पद 81 से 89/पृष्ठ 5

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:39, 5 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास |संग्रह= गीतावली/ तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} [[Category…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(85)

हौं तो समुझि रही अपनो सो |
राम-लषन-सियको सुख मोकहँ भयो, सखी! सपनो सो ||

जिनके बिरह-बिषाद बँटावन खग-मृग जीव दुखारी |
मोहि कहा सजनी समुझावति, हौं तिन्हकी महतारी ||

भरत-दसा सुनि, सुमिरि भूपगति, देखि दीन पुरबासी |
तुलसी राम कहति हौं सकुचति, ह्वैहै जग उपहाँसी ||