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गीतावली सुन्दरकाण्ड पद 11 से 20 तक/पृष्ठ 10
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तुम्हरे बिरह भई गति जौन |
चित दै सुनहु, राम करुनानिधि! जानौं कछु, पै सकौं कहि हौं न ||
लोचन-नीर कृपिनके धन ज्यों रहत निरन्तर लोचनन कोन |
"हा धुनि-खगी लाज-पिञ्जरी महँ राखि हिये बड़े बधिक हठि मौन ||
जेहि बाटिका बसति, तहँ खग-मृग तजि-तजि भजे पुरातन भौन |
स्वास-समीर भेण्ट भै बोरेहु, तेहि मग पगु न धर्यो तिहुँ पौन ||
तुलसिदास प्रभु! दसा सीयकी मुख करि कहत होति अति गौन |
दीजै दरस, दूरि कीजै दुख, हौ तुम्ह आरत-आरति दौन ||