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साँचेहु बिभीषन आइहै ?
बूझत बिहँसि कृपालु, लखन सुनि कहत सकुचि सिर नाइ है ||
ऐहै कहा, नाथ? आयो ह्याँ, क्यों कहि जाति बनाइ है |
रावन-रिपुहि राखि, रघुबर बिनु, को त्रिभुवन पति पाइहै ||
प्रभु प्रसन्न, सब सभा सराहति, दूत-बचन मन भाइहै |
तुलसी, "बोलिये बेगि, लषनसों भै महाराज-रजाइ है ||