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गीतावली लङ्काकाण्ड पद 1 से 5 तक/पृष्ठ 1

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मन्दोदरी-प्रबोध

रागमारु
 
 मानु अजहू सिष परिहरि क्रोधु |
 पिय पूरो आयो अब काहि, कहु, करि रघुबीर-बिरोधु ||

 जेहि ताड़ुता-सुबाहु मारि, मख राखि जनायो आपु |
 कौतुक ही मारीच नीच मिस प्रगट्यौ बिसिष-प्रतापु ||

 सकल भूप बल गरब सहित तोर्यो कठोर सिवचापु |
  ब्याही जेहि जानकी जीति जग, हर्यौ परसुधर-दापु ||

  कपट-काक साँसति-प्रसाद करि बिनु श्रम बध्यो बिराधु |
  खर-दूषन-त्रिसिरा-कबन्ध हति कियो सुखी सुर-साधु ||

  एकहि बान बालि मार्यो जेहि, जो बल-उदधि अगाधु |
  कहु, धौं कन्त कुसल बीती केहि किये राम-अपराधु ||

  लाँघि न सके लोक-बिजयी तुम जासु अनुज-कृत-रेषु |
  उतरि सिन्धु जार्यो प्रचारि पुर जाको दूत बिसेषु ||

  कृपासिन्धु, खल-बन-कृसानु सम, जस गावत श्रुति-सेषु |
  सोइ बिरुदैत बीर कोसलपति, नाथ! समुझि जिय देषु ||

  मुनि पुलस्त्यके जस-मयङ्क महँ कत कलङ्क हठि होहि |
  और प्रकार उबार नहीं कहुँ, मैं देख्यो जग जोहि ||

  चलु, मिलु बेगि कुसल सादर सिय सहित अग्र करि मोहि |
  तुलसिदास प्रभु सरन-सबद सुनि अभय करैङ्गे तोहि ||