(2)
अंगदका दूतकर्म
रागकान्हरा
तू दसकण्ठ भले कुल जायो |
ता महँ सिव-सेवा, बिरञ्चि-बर, भुजबल बिपुल जगत जस पायो ||
खर-दूषन-त्रिसिरा, कबन्ध रिपु जेहि बाली जमलोक पठायो |
ताको दूत पुनीत चरित हरि सुभ सन्देस कहन हौं आयो ||
श्रीमद नृप-अभिमान मोहबस, जानत अनजानत हरि लायो
तजि ब्यलीक भजु कारुनीक प्रभु, दै जानकिहि सुनहि समुझायो ||
जातें तव हित होइ, कुसल कुल, अचल राज चलिहै न चलायो |
नाहित रामप्रताप-अनलमहँ ह्वै पतङ्ग परिहै सठ धायो ||
जद्यपि अंगद नीति परम हित कह्यो, तथापि न कछु मन भायो |
तुलसिदास सुनि बचन क्रोध अति, पावक जरत मनहु घृत नायो ||