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 अंगदका दूतकर्म
 रागकान्हरा 
  तू दसकण्ठ भले कुल जायो |
  ता महँ सिव-सेवा, बिरञ्चि-बर, भुजबल बिपुल जगत जस पायो ||
  खर-दूषन-त्रिसिरा, कबन्ध रिपु जेहि बाली जमलोक पठायो |
  ताको दूत पुनीत चरित हरि सुभ सन्देस कहन हौं आयो ||
  श्रीमद नृप-अभिमान मोहबस, जानत अनजानत हरि लायो 
  तजि ब्यलीक भजु कारुनीक प्रभु, दै जानकिहि सुनहि समुझायो ||
  जातें तव हित होइ, कुसल कुल, अचल राज चलिहै न चलायो |
  नाहित रामप्रताप-अनलमहँ ह्वै पतङ्ग परिहै सठ धायो ||
  जद्यपि अंगद नीति परम हित कह्यो, तथापि न कछु मन भायो |
  तुलसिदास सुनि बचन क्रोध अति, पावक जरत मनहु घृत नायो ||