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गीतावली लङ्काकाण्ड पद 1 से 5 तक/पृष्ठ 3

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  (3)

 तैं मेरो मरम कछू नहिं पायो |
  रे कपि कुटिल ढीठ पसु पाँवर! मोहि दास-ज्यों डाटन आयो ||

  भ्राता कुम्भकरन रिपुघातक, सुत सुरपतिहि बन्दि करि ल्यायो |
  निज भुजबल अति अतुल कहौं क्यों, कन्दुक ज्यों कैलास उठायो ||

  सुर, नर, असुर, नाग, खग, किन्नर सकल करत मोरो मन भायो |
  निसिचर रुचिर अहार मनुज-तनु, ताको जस खल! मोहि सुनायो ||

  कहा भयो, बानर सहाय मिलि, कर उपाय जो सिन्धु बँधायो |
  जो तरिहै भुज बीस घोर निधि, ऐसो को त्रिभुवनमें जायो ?||

  सुनि दससीस-बचन कपि-कुञ्जर बिहँसि ईस-मायहि सिर नायो |
  तुलसिदास लङ्केस कालबस गनत न कोटि जतन समझायो ||