भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शापमुक्त होने तक / राजेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:58, 10 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र कुमार |संग्रह=ऋण गुणा ऋण / राजेन्द्र …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसी हर खिड़की पर
जो बाहर की ओर खुलती है
लटके हैं कई-कई चेहरे ।
अंकित है हर एक पर
अभिशापित होने का भाव ।

बहुतों ने
आँख के गुलेल से
दृष्टि के पत्थर फेंक कर
इन पर अपना निशाना
आजमाना चाहा;

कुछ सफ़ल भी हुए
लेकिन इन चेहरों पर अंकित
भाव नहीं बदले हैं
हाँ, मुद्राएँ ज़रूर बदली हैं ।

शायद
इन्हें तलाश है किसी ऐसे-
दृष्टि के स्पर्श की
जो शीशे-सा चटका दे इन्हें
और फिर हर चटके चेहरे को
शाप-मुक्त होने तक
यों ही लटका रहने को
उनके हाल पर छोड़ दे ।