भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चन्द्रग्रहण को देखकर / राजेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:06, 10 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र कुमार |संग्रह=ऋण गुणा ऋण / राजेन्द्र …)
चाँद पूरनमासी का
कितना छविमान हुआ करता है
किन्तु आज इस पर / छाया जो पड़ गई / मेरी इस धरती की,
कौन अपाहिज-सा दिखता है यह
फीकी-सी
दिखती है सारी की सारी छवि
और जब कि / केवल छाया ही धरती की
पड़ी है ।
बेचारा यह
कैसा दिखेगा जब
उतरेगी इस पर हमारी यह धरती
वास्तव में !