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ठाढ़े हैं लषन कमलकर जोरे |
उर धकधकी, न कहत कछु सकुचनि, प्रभु परिहरत सबनि तृन तोरे ||
कृपासिन्धु अवलोकि बन्धु तन, प्रान-कृपान बीर-सी छोरे |
तात बिदा माँगिए मातुसों, बनिहै बात उपाइ न औरे ||
जाइ चरन गहि आयसु जाँची, जननि कहत बहुभाँति निहोरे |
सिय-रघुबर-सेवा सुचि ह्वैहौ तौ जानिहौं, सही सुत मोरे ||
कीजहु इहै बिचार निरन्तर, राम समीप सुकृत नहिं थोरे |
तुलसी सुनि सिष चले चकित-चित उड्यो मानो बिहग बधिक भए भोरे ||