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ऐसी ख़ुशियों की जब बारात सजी / लीना मल्होत्रा

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उस दिन ख़ुशी के मारे
चाँद भी रास्ता भटक गया
और
चाँदनी इठलाते हुए उतर आई
उस आँगन में
जहाँ बरगद ने सौ बरस तपस्या की थी ।
कोई आने वाला था.... I
बरगद ख़ुश था उसके हर पत्ते ने दुआ में हाथ उठाए
ख़ूब आशीर्वाद बरसाए
घर के सभी चमकदार बर्तन खुश थे
कोई आने वाला था........I
फिर से मंजेगे ,
कमरे खुश थे - फिर संवरेगे .
मुंडेरे खुश थी - खूब सजेंगी
पानी खुश था- कोई पीएगा, नहायेगा
हवा खुश थी- कभी जोर से तो कभी धीरे से बहेंगी
दिन, मिनट, घंटे खुश थे - खालीपन ख़त्म हुआ
डिब्बो में राखी दालें, आटा और चावल खुश थे-
नए पकवान पकेंगे
चींटियाँ खुश थी- खूब खाना बिखेरेगा
ऐसी खुशियों की जब बारात सजी
एक सफ़ेद रुई का गोला मेरी गोद में आ गिरे
उस रुई के गोले की दो काली-काली आँखें खुली
और उन्होंने मुझसे पुछा
"माँ तुम खुश हो " I
और
मैंने जाना कि
ख़ुशी क्या होती है I
मैंने अभी उसे ठीक से प्यार भी नहीं किया
दुलार भी नहीं किया
नज़र का टीका भी नहीं किया
कि
वह सफ़ेद खरगोश की तरह
कुलांचे भरती , भाग गयी
छोटा सा बस्ता उठाये , स्कूल .
उसके लौटने तक एक उम्र बीत गयी
और मैंने जाना
इंतज़ार क्या होता है I