अगली सुबह तक / शलभ श्रीराम सिंह
फले चेहरों
और
खिले अपरिचय का
हू-हू कर सन्नाटा उगलता एक जंगल !
दलदल में फँसा मैं (?)
जलती आँखों और खुले जबड़ों की भीड़ लिए
मेरी ओर
एक साथ बढ़ रही हैं दो राशियाँ !
काश ! इनकी आँखें आपस में टकरा जातीं !
अगली सुबह तक और जी लेता मैं !
कोई तो गुज़रता इधर से -
ज़िन्दगी के आखिरी दौर में
’गुलाम मुहम्मद’ बने निराला,
अभावों को कंधे पर बिठाये मुक्तिबोध !
कच्ची मौत मरने वाले सूर्यप्रताप-सतीश-देवेन !
कोई तो गुजरता
मौत को चूम कर लौटे छविनाथ !
दर-दर की ख़ाक छानता चन्द्रमौलि !
युवा सन्यासी ओम प्रभाकर !
कोई तो गुजरता
कवि श्री नागार्जुन-शमशेर-कुमारेन्द्र !
भावक - अभिमित्र - मोहर उदयभान - कपिलआर्य !
मत्स्याधिक बन्दु विजय - अलख और शिवमंगल
नीलकान्त-केशनी-सुरेन्द्र-अजित-बालकृष्ण !
कोई तो गुजरता
नरेश-नईम-उमाकान्त और नीलम !
मिलिन्द-राजशेखर-गोपाल और शंकर !
नहीं तो...नहीं तो सड़ी हुई किडनी
और गली अँतड़ियों के बूते
मौत की चुनौतियाँ झेलते राजकमल !
कोई न कोई तो गुज़रता ही !
काश ! इनकी आँखें आपस में टकरा जातीं !
अगली सुबह मैं --
नये सिरे से जि़न्दगी की शुरुआत करता !
जिन्दगी की शुरुआत :
नवल-अशोक-अनाम-मानू-[पत्नी] और प्रतिभा [पुत्री] के साथ !
अगली सुबह तक और जी लेता मैं !
इनकी आँखें ..इनकी आँखें आपस में टकरा जातीं काश !
[1966]