भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अप्रत्याशित सुख / शलभ श्रीराम सिंह
Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:32, 28 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह |संग्रह=कल सुबह होने के पहले / श…)
अभी-अभी चली गई है ट्रेन !
कानों में पानी की तरह
रह गई है सीटी की आवाज़ !
ज़रूरत से ज़्यादा सामान लेकर
सफ़र करने के जुर्म में
रात भर मुसाफिर खाने में क़ैद रहना होगा !
सुबह समाचारपत्रों के मुखपृष्ठ पर
टूटेगा कोई पुल !
स्थगित यात्रा की पीड़ा
अप्रत्याशित सुख में बदल जायेगी !
(१९६६)