भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब आदमी वहशी बन गया / अर्श मलसियानी
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:20, 29 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्श मलसियानी }} {{KKCatGhazal}} <poem> बस्तियों की बस्तियां …)
बस्तियों की बस्तियां बर्बादो-वीराँ हो गईं
आदमी की पस्तियां आखिर नुमांयां हो गईं
क़त्लो-ग़ारत के हज़ारों दाग़ लेकर वहशतें
आज सुनते हैं कि फिर इस्मत बदामाँ हो गईं
देखिये सरसब्ज कब होती है कश्ते-ज़िन्दगी
आँधियां कहते तो हैं अब्रे-बहाराँ हो गईं
यूँ कभी मज़हब की क़दरों को न इन्साँ छोड़ता
ऐ ख़ुशा वह ख़ुद बलाए-जाने-इन्साँ हो गईं
कौन अब नेकी करे इन्सानियत के नाम पर
नेकियां तो जिस क़दर थीं सर्फ़े-ईमाँ हो गईं
जिन ख़ताओं पर दरे-जन्नत हुआ आदम पै बन्द
वह ख़तायें ही बिनाए-बज़्मे-इमकाँ हो गईं