देहाती दोशीज़ा / अर्श मलसियानी
कारवाँ तारीकियों का हो गया आख़िर रवाँ
जानिबे-मशरिक़ से निकला आफ़ताबे-ज़रफ़िशाँ
ओस के क़तरे में मोती की चमक पैदा हुई
रेत के ज़र्रे में हीरे की दमक पैदा हुई
नूर की बारिश से फिर हर नस्ल नूरानी हुआ
आतिशे सैय्याल फिर बहता हुआ पानी हुआ
सो गई फिर मुँह छिपा कर नूर के पर्दे में रात
जाग उठी फिर फ़ज़ा फिर जगमगाई कायनात
फिर अ़रूसे सुबह की ज़ु्ल्फ़ें सँवरने लग गईं
गावों पर बेदारियां फिर रक़्स करने लग गईं
फिर बिलोकर छाछ फ़ारिग औरतें होने लगीं
अपने बच्चों को जगा कर उनके मुँह धोने लगीं
खेत में दहकान धीमे राग फिर गाने लगा
सीनए-गेती को सोज़े-दिल से गरमाने लगा
गो नहीं थी इसको मद्धम और पंचम की तमीज़
गो नहीं थी इसको सुर की ताल की सम की तमीज़
फिर भी इसका नग़्मा इक जादू भरा एजाज़ था
गोशा-गोशा रह फ़ज़ा का गोशबर-आवाज़ था