भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीती विभावरी जाग री / जयशंकर प्रसाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस रचना को आप सस्वर सुन सकते हैं:  
आवाज़: अज्ञात

बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट ऊषा नागरी।

खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर ला‌ई
मधु मुकुल नवल रस गागरी।

अधरों में राग अमंद पिये
अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सो‌ई है आली
आँखों में भरे विहाग री।