Last modified on 5 जुलाई 2011, at 12:50

जीने और जी सकने के बीच / माया मृग

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:50, 5 जुलाई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


अनंत फैला सागर
तुम्हारे पास था
और मेरे हिस्से में आया
प्यास का कुआँ।
नेह का जल बाँटते हुए
हर बार
मेरी प्यास की परिभाषा
तुमने ख़ुद की।
तुम्हारे पुचकार भरे होंठों से
निकली गोलाइयाँ
परिधि माप कर खींची गईं।

बडी परवाह से मुझे सिखाई गई लापरवाही।

नैतिकता का देव-रथ
जो उतारा गया-आसमान से
उसका
सबसे आखिरी पहिया
मेरे माथे के
बीचों-बीच टिका।
असुरों ने उछल-उछल कर
कब्ज़ाया देव-रथ
और पहिये गड्ढों में धचक गए।

तब भी मैं
तुम्हारे
उपकार तले दबा
कराहता रहा।