भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घर तक थर्राते हैं / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:42, 11 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=आहत हैं वन / कुमार रवींद्…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तूफ़ानी रातों में
         समाधिस्थ पेड़
पूछते हवाओं से कौन रहा छेड़
 
सपनों के डेरे में
यह कैसी चाल
लहरों से कहते हैं
जाग रहे ताल
 
कौन रहा तारों को इस तरह खदेड़
 
बँटा हुआ आसमान
क्षितिजों के पार
सोचता - कहाँ तक है
अँधी दीवार
 
क्यों कोंपल असमय ही हो गयी अधेड़
 
पत्तों की बस्ती में
इतनी आवाज़
कौन कहे कोयल की
डरे हुए बाज़
 
घर तक थर्राते हैं दरवाजे भेड़