भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नीम-पीपल पुश्तैनी / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:30, 11 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=आहत हैं वन / कुमार रवींद्…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहाँ कभी जमती थी
         पंचों की खैनी
कहाँ गए, बंधु, नीम-पीपल पुश्तैनी
 
गये-दिनों गुज़र गई
पुरखों की देहरी
चौखट पर बैठी है
बूढ़ी दोपहरी
 
पूछे अब कौन यहाँ गुड़-चना-चबैनी
 
गलियों में फिरती हैं
सिरफिरी हवाएँ
इस अँधे सूरज को
किस जगह बिठाएँ
 
चलती हैं सभी ओर जब छुरियाँ पैनी
 
पोखर के आसपास
छल हैं रेतीले
मन्दिर में देवों के
चेहरे हैं पीले
 
सोच रहे - कहाँ गई स्वर्ग की नसैनी