भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुढ़ा रहे गाँव / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:03, 11 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=आहत हैं वन / कुमार रवींद्…)
युवा नए शहरों के फैल रहे पाँव
महलों के आसपास
बुढ़ा रहे गाँव
रोज़ कहीं कटती है
बरगद की डाल
या उजाड़ होती है
हारी चौपाल
खेतों में उगते हैं बँटे हुए ठाँव
पक्की मीनार रही
अमराई घेर
पोखर पर
रेत और गारे का ढेर
टूट रही पीपल की पुश्तैनी छाँव
काँपते शिवाले का
झंडा है मौन
देवी के चौरे को
पूजे अब कौन
अँधे हैं सीमेंटी ढाँचों के दाँव