भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कैसे बना सकी खुद को / वत्सला पाण्डे

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:30, 22 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वत्सला पाण्डे |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}}<poem>सोचती रही हूं …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोचती रही हूं अक्सर

अंधेरों में कौंधती
बिजलियों के
प्रथम स्पर्श में
क्या दिया था
तुमने

एक फलसफा
जिसे
पढते रहे सब
मगर मैं नहीं

या
एक त्रासदी
जिसे भोगने का
दायित्व दे दिया गया
मुझे

न जाने कब
एक दिन
रंगों से भर गया
कैनवास मेरा

उकेर लिया खुद को