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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ - ५

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भारत-भूतल

शिखरिणी

            सिता-सी साधें हो सुकथन सुधा से मधुर हो।
            अछूते भावों से भर-भर बने भव्य प्रतिभा।
            रसों से सिक्ता हो पुलकित क सूक्ति सबको।
            विचारों की धारा सरस सरि-धारा-सदृश हो॥1॥
गीत
            जय भव-वंदित भारत-भूतल।
            शिर पर शोभित कलित क्रीट सम विलसित अचल हिमाचल॥1॥

कंठ-लग्न मुक्ता-माला-इव मंजुल सुर-सरि-धारा।
होता है विधौत पग पावन पूत पयोनिधि द्वारा॥2॥

            मणि-गण-मंडित कान्त कलेवर तरु कोमल दल श्यामल।
            सुधा-भरित नाना फल-संकुल सफलीकृत वसुधातल॥3॥

मधु-विकास-विकसित बहु सरसित शरद सितासित सुन्दर।
सुरभित मलय-समीर-सुसेवित सुखनिधि मंजुल मंदर॥4॥

            नव-नव उषा-राग-आरंजित मन-रंजन घन-माली।
            राका रजनी आयोजन रत लोकोत्तर छविशाली॥5॥

रुचिर पुरन्दर-चाप-विभूषित तारक-माला-सज्जित।
रविकर-निकर-कलित-आलोकित चन्द्र-चारुता-मज्जित॥6॥

            नंदन-वन-समान उपवन-मय चन्दन-तरु-चयधारी।
            लोक ललित लतिका कर-लालित ललामता अधिकारी॥7॥

खग-कुल-कलरव-कान्त कोकिला-आकुल-नाद-अलंकृत।
मुग्धकरी कुसुमावलि-पूरित अलि-झंकार-सुझंकृत॥8॥

            मनभावन महान महिमामय पावन पद-परिचायक।
            सुरपुर-सम सम्पन्न दिव्य-तम सप्तपुरी-अधिनायक॥9॥

सकल अमंगल-मूल-निकंदन भव-जन-मंगलकारी।
प्रेम-निलय 'हरिऔध' मधुर-तम मानस-सदन-विहारी॥10॥

द्रुतविलम्बित

            वृषभ-वाहन है शशि-मौलि है।
            वर-विभूति-विराजित गात है।
            सुर-तरंगिणि है शिर-मालिका।
            भरत-भूतल ही भव-मूर्ति है॥11॥

सतत है अवनीतल-रंजिनी।
कमल-लोचन की कमनीयता।
भुवन-मोहन है तन-श्यामता।
भरत-भूमि रमापति-मूर्ति है॥12॥

            मलिन लोचन की मल-मूलता।
            विविध मायिकता मनुजात की।
            हरण है करती मद-अंधता।
            भरत-भूतल-श्याम-स्वरूपता॥13॥
वसंत-तिलका
            है हंसवाहन चतुर्मुख चारु-मूर्ति।
            है वेद-वैभव-विकासक बुध्दि-दाता।
            सत्कर्म-धाम कमलासनताधिकारी।
            नाना विधन-रत भारत है विधाता॥14॥
    वंशस्थ
                        रमा समा है रमणीयता मिले।
                        उमा समा है वन-सिंह-वाहना।
                        गिरा समा है प्रतिभा-विभूषिता।
                        विचित्र है भारत की वसुंधरा॥15॥