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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - १

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त्रायोदश सर्ग
कान्त कल्पना
सिन्दूर
(1)

सिखाए अनुरंजन का मन्त्रा।
जमाए अनुपम अपना रंग।
लोक-हित-पंकज-पुंज-निमित्त।
कहाए विलसित बाल-पतंग॥1॥

भर रग-रग में भव-अनुराग।
मानसों को कर बहु अभिराम।
रखे शुचि रुचि की लाली मंजु।
लालिमा दिखला परम ललाम॥2॥

सिध्द हो कल कृति-नयन-निमित्त।
अलौकिक रस-अंकित वह बिन्दु।
याद आता है जिसे विलोक।
सुधारस-वर्षणकारी इन्दु॥3॥

लाभ कर हृदय-रंजिनी कान्ति।
ज्ञात हो लसित लालसा-ओक।
उसे, है जिसे, लोक-हित प्यारे।
दिखा अवलोकनीय आलोक॥4॥

मंजु आरंजित मुख का राग।
करें जन-जन रंजन भरपूर।
बने वसुधा सोहाग-सर्वस्व।
भारती-भूति-भाल सिन्दूर॥5॥

प्रभाकर
(2)

दृगों पर पड़ा असित परदा।
उरों में ऍंधिकयाला छाया।
समाया नस-नस में तामस।
भरा तम घर-घर में पाया॥1॥

ज्योति के लिए न फिर कैसे।
दुखित जनता-मानस तरसे।
प्रभाकर भारत-भूतल का।
तिमिर हर लो सहस्र कर से॥2॥

(3)

अरुणता अरुण नहीं पाता।
उषा क्यों आरंजित होती।
विभा का बीज धारातल में।
कान्त किरणावलि क्यों बोती॥1॥

गिरि-शिखर क्यों शोभा पाता।
मणि-जटित कल किरीट पाकर।
ललित क्यों लतिकाएँ होतीं।
मंजुतम मुक्ताओं से भर॥2॥

सरि-सरोवर में क्यों बिछतीं।
चादरें स्वर्ण-तार-विरचित।
अंक प्राची का क्यों लसता।
विपुल हीरक-चय से हो खचित॥3॥

कंठ क्यों खुलता विहगों का।
कुसुम-कुल-कलिका क्यों खिलती।
विलसता क्यों प्रभात का मुख।
प्रभाकर-प्रभा जो न मिलती॥4॥

(4)

क्षपाकर की छवि छिनती है।
तेजहत होते हैं ता।
गिरि-गुहा में तम छिपता है।
बने अंधो निशिचर सा॥1॥

उसे कहते दिल दुखता है।
यामिनी लुटती है जैसी।
कहें क्या ऐसी विभुता को।
प्रभाकर यह प्रभुता कैसी॥2॥

आलोक
(5)

भरत-सुत का मुख अति कमनीय।
हो गया है श्रीहीन नितान्त।
क्या पुन: पूर्व तेज कर प्राप्त।
बनेगा नहीं कलानिधि कान्त॥1॥

जगी जगती में जिसकी ज्योति।
समालोकित कर सा ओक।
कगी क्या भारत-भू लाभ।
फिर अलौकिकतम वह आलोक॥2॥

(6)

मत मिले तारकचय की ज्योति।
भले ही उगे न मंजु मयंक।
न दीखे दीपावलि की दीप्ति।
छिपाए चपला को घन अंक॥1॥

प्रभा पाएगा पूत प्रभात।
समालोकित होंगे सब ओक।
बनेगा दिवा दिव्य-से-दिव्य।
दिवापति का पाकर आलोक॥2॥

चारु चरित
(7)

किसके लालन-पालन से है रहती मुख की लाली।
भूतल में किसके कर से प्रतिपत्तिक गयी प्रतिपाली।
किसका आनन अवलोकन कर मानवता है जीती।
सुरुचि-चकोरी किस मयंक-मुख का मयूख है पीती॥1॥

कुजन लौह किस पारस के परसे है सोना बनता।
किसका कीत्तिक-वितान सकल वसुधातल में है तनता।
किसके दिव्यभूत मुख पर है वह आलोक दिखाता।
जिसे विलोक कलंक-तिमिर का है विलोप हो जाता॥2॥

किसके दृष्टिपूत दृग में है वह लालिमा विलसती।
जिसके बल से अनुरंजनता है वसुधा में बसती।
किसका तेज:पुंज कलेवर वह कौशल करता है।
जो तामसी वृत्तिक रजनी में दिव्य ज्योति भरता है॥3॥