भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती / भावना कुँअर
Kavita Kosh से
Dr.bhawna (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 15:42, 7 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भावना कुँअर }} अब ये दुनिया नहीं है भाती तभी तुम्हें लि...)
अब ये दुनिया नहीं है भाती
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
खून-खराबा है गलियों में, छिपे हुए हैं बम कलियों में, है फटती धरती की छाती, तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
उज़ड़ गये हैं घर व आँगन, छूट गये अपनों के दामन, यही देख के मैं घबराती, तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।
है बड़ी बेचैनी मन में, नफ़रत फैली है जन-जन में, नींद भी अब तो नहीं है आती, तभी तुम्हें लिक्खी है पाती।