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सपने-5 / सुरेश सेन निशांत
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यह कैसी विडम्बना थी
अपने ख़रीदे हुए सपनों के संग
जीए जा रहे थे लोग ख़ुशी-ख़ुशी
एक बेचैनी में करवटें बदलते हुए
फिर भी आतताई थे चिंतित
कि कहीं दूर इसी धरती पर
किसी थके हुए आदमी की पसीने-भीगी नींद में
नित नए सपने ले रहे हैं जन्म
उनके लाख पहरों के बावजूद ।