भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काक बखान / गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'

Kavita Kosh से
Gopal krishna bhatt 'Aakul' (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:07, 19 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> कोयल क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोयल कौ घर फोर कै, घर घर कागा रोय।
घड़ि‍यल आँसू देख कै, कोउ न वाकौ होय।।1।।

बड़-बड़ बानी बोल कै, कागा मान घटाय।
कोऊ वाकै यार है, 'आकुल' कोइ बताय।।2।।

चि‍रजीवी की काकचेष्‍टा, जग ने करी बखान।
पि‍क बैरी कर आहत सीता, खींचै सब सम्‍मान।।3।।

पि‍क के घर में सेव कै, कागा पि‍क ना होय।
लाख मलाई चाट कै, काला सि‍त ना होय।।4।।

मेहनत कर कै घर करै, पि‍क से यारी होय।
कागा सौ ना जीव है, ऐयारी मे कोय।।5।।

गो, बामन बि‍न कनागत, दशाह घाट बि‍न काक।
सद्गति‍ बि‍न उत्‍तर करम, जीवन का बि‍न नाक।।6।।

कागा महि‍मा जान लो पण्‍डि‍त काक भुशण्‍ड।
इंद्र पुत्र जयंत कूँ एक आँख कौ दण्‍ड।।7।।

आमि‍ष भोजी कागला, कोई प्रीत बढ़ाय।
औघड़ सौ बन-बन घूमै, यूँ ही जीवन जाय।।8।।

कोयल बुलबुल ना लड़ैं, दोनों मीठौ गायँ।
प्रीत बढ़ावै दोसती, कागा समझै नायँ।।9।।

'आकुल' या संसार में, तू कागा से सीख।
ना काहू से दोसती, ना काहू से भीख।।10।।