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फ़कीराना आए सदा कर चले / मीर तक़ी 'मीर'

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फ़कीराना आए सदा कर चले

मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले


जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम

सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले


कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह

सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले


बहोत आरजू थी गली की तेरी

सो याँ से लहू में नहा कर चले


दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया

हमें आप से भी जुदा कर चले


जबीं सजदा करते ही करते गई

हक-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले


परस्तिश की याँ तैं कि ऐ बुत तुझे

नज़र में सबों की खुदा कर चले


गई उम्र दर बंद-ऐ-फिक्र-ऐ-ग़ज़ल

सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले


कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"

जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले