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रिश्तों के पन्ने पलटते हुए / सरस्वती माथुर
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हस्ताक्षर न बन पाए हम तो
अंगूठे बन कर रह गये
सत्य ने इतनी चुराई आँखे कि
झूठे बन कर रह गये
बेबसी के इस आलम को क्या कहें
बांध नहीं सके जब किसी को
तो खुद खूंटे बन कर रह गये
रिश्तों के पन्ने पलटते हुए
दर्द कि तलवारों के हम
बस मूढे बन कर रह गये
सत्य ने चुराई इतनी आँखें
कि बस झूठें बन कर रह गये
कांच की दीवारें खींच कर
रिश्तों के पन्ने पलटते रहे
अपनों ने मारे जब पत्थर
तो किरचों के साथ
टूटे फूटे बनकर रह गये
लहुलुहान भावनाओं से
ज्वारभाटे उठने लगे
हम शांत समुंदर
बन कर रह गये
सत्य ने चुराई इतनी आँखें
बस झूठे बन कर रह गये!