भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो / रमई काका
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:58, 4 अक्टूबर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमई काका |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> लरिकउनू बी ए पास कि…)
लरिकउनू बी ए पास किहिनि, पुतहू का बैरू ककहरा ते।
वह करिया अच्छरू भैंसि कहं, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
दिनु राति बिलइती बोली मां, उइ गिटपिट गिटपिट बोलि रहे।
बहुरेवा सुनि सुनि सिटपिटाति, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
लरिकऊ कहेनि वाटर दइदे, बहुरेवा पाथर लइ आई।
यतने मा मचिगा भगमच्छरू, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
उन अंगरेजी मां फूल कहा, वह गरगु होइगे फूलि फूलि।
उन डेमफूल कह डांटि लीनि, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
बनिगा भोजन तब थरिया ता, उन लाय धरे छूरी कांटा।
डरि भागि बहुरिया चउका ते, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
लरिकऊ चले असनान करै, तब साबुन का उन सोप कहा।
बहुरेवा लइकै सूप चली, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।
</pom>