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ढोंग की दुविधा / प्रमोद कौंसवाल

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पहाड़ों के पीछे पहाड़ हैं
पहाड़ों के पीछे और बड़े पहाड़
उनके पीछे और भी बड़े
मुँह छुपाने के लिए
पहाड़ ही पहाड़

जब शरण न दे पहाड़
तब पहाड़ों की बनाई सुरंगे हैं
सुरंगे भर जाएंगी
तो गंगामाईजी कहाँ जाऊंगा
शहरों में ठहरे शराबियों के ठेये
गाँवों में टिंचरीख़ोर हैं
टी.वी. पर आपने देखा होगा
आश्रम भी मेरा उजड़ गया
अब कहाँ जाऊँ मैं
कोई भीख़ नहीं मांग रहा
जंगल जल नहीं रहे
ठेकेदार भी चुप हैं
अब मैं किस पर लिखूँ
मैंने मुँह छिपा लिया
सुरंग भी देख ली
इधर मेरे हाथ में बजता
कनस्तर है एक ख़ाली
उसकी आवाज़ भी
कोई सुन नहीं रहा।