Last modified on 4 नवम्बर 2011, at 22:40

पत्नी / विमलेश त्रिपाठी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:40, 4 नवम्बर 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वह बासन माँजती है
जैसे स्मृतियों का धुँधलका साफ़ करती
खंगालती है अतीत
जैसे चीकट साफ़ करती दुनिया भर के कपड़ों के
 
चलती कि हवा चलती हो
जलती कि चूल्हे में लावन जलता हो
करती इंतजार अपने हिस्से के आकाश पर टकटकी लगाए
कि खेत मानसून की पहली बूँद की राह तकते हों
 
हँसती कभी कि कोई मार खाई हँसती हो
रोती वह कि भादो में आकाश बिसुरता हो
याद करती कि बचपन की एक तस्वीर की
अनवरत स्थिर रह गई हँसी याद करती हो
 
उसके सपने नादान मंसूबे गुमराह भविष्य के
मायके से मिले टिनहे संदूक में बंद
 
नित सुबह शाम थकी दोपहर
उजाड़ रातों के सन्नाटे में
छूट गए अपने चेहरों की आवाजाही
 
छूट गए दृश्यों पर एकाकी समय के पर्दे
पहले प्रेम-पत्र के निर्दोष कुँआरे शब्दों पर
गिरती लगातार धूल गर्द
रातें लंबी दिन पहाड़
सब चेहरे अँधेरी गुफ़ा की तरह
अजनबी - भयानक
 
सहती वह
कि अनंत समय से पृथ्वी सहती हो
 
रहती वह
सदी और समय और शब्दों के बाहर
सिर्फ अपने निजी और एकांत समय में
सदियों मनुष्य से अलग
जैसे एक भिन्न प्रजाति रहती हो..