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जीने का उत्सव / विमलेश त्रिपाठी

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(बिहार के एक जातीय नरसंहार के बाद)

खुश है एक लड़की
अपनी कोरी देह में उबटन मलवाती हुई
सगुन गाती हुई अध्ेड़ औरतें
भूल गयी हैं गोलियों की धंय-धंय खून के पफौव्वारे
जो एक कांपते हुए सन्नाटे और बिसुरती हुई रात में उठे थे
एक औरत चुटकी भर चावल से चुमावन करती है
भावी दुल्हन की
खुश रहने की देती है अशीष
हालांकि वह जानती है कि उसकी मनकिया की तरह
इस दुल्हन की खुशियाँ भी रात के अँध्रे में
धन के लाटों की तरह कभी भी लुट सकती हैं
रमजोतिया की गोद में बैठा नादान भविष्य इस इलाके का
तालियाँ पीटता है खिलखिलाता है
वह सचमुच नहीं जानता
कि उसके पथेरे बाप की लाश
भुतहे पीपर पर टंगी हुई क्यों मिली थी
आखिरी बची रह गयी लड़की का पिता
जिम्मेदारियों से झुकी गर्दन लिए पड़ा है
पुआल के नंगे बिस्तर पर
सुनता है झूमर-बन्दे मेरे लंदन में पढ़ि के आय
बेटी को एक नचनिया के साथ ब्याह कर
चैन से मर जाने के सपने देखता हुआ
उरूआ की आवाज सुनकर सोचते हैं जटाध्र पंडित
हरमिया तीन दिन से रो रहा है
पता नहीं इसबार
गाँव के कितने लोग उठने वाले हैं
सबसे अलग अपनी ईया के साथ
आँगन में नन्हें आकाश के नीचे उँघा रहा है ध्ुरखेलुआ
राजा-रानी की एक और कथा सुनने की जिद में
एक समय मर रहा है
और अपने जीने को सीने से चिपटाए
लोग सोने की तैयारी कर रहे हैं।