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ग़नीमत है अनगराहित भाई / विमलेश त्रिपाठी

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अपनी गँवई ध्ूल की सोंध्ी गन्ध् को अपने बस्ते में छुपाए
अपने हिस्से की थोड़ी सी हवा को पेफपफड़े में बाँध्े
हम चले आये थे इतनी दूर
यहाँ आदमी बनने के लिए
छोड़ आये थे अनगराहित सिंह और सूकर जादो को
दूर उस बरगद के नीचे
जो अकेला गवाह था हमारी तोतली जबान का
और दुहराता था हमारी ही लय में
एक दूना दो
दो दूना चार
चार नवा छत्तीस
बाँटता था पँचपाइसी गोलियामिठाई की जगह
मुफ्रत में ऑक्सीजन से लबालब हवा
वही आकाश हमारा
उसी के नीचे ध्रती
नादान समय वह
वहीं रटते थे चार डेढ़े छव का पहाड़ा
और चले आये थे वहीं से इतनी दूर
यहाँ आदमी बनने के लिए
पंडी जी कहते थे
पहाड े़ पहाड ़ पर पहँचु ान े क े सबस े सस्त े आरै उपलब्ध् साध्न हैं
जब भी तुम्हें लगे कि तुम्हारे द्वार पर
नीम तक रोपने की जगह नहीं बची
तो याद करना मिट्टी के स्लेट पर लिखे पहाड़े को
तुम्हे आश्चर्य होगा कि तुम पहाड़ पर हो
और ला सकते हो जमीन का एक टुकड़ा उठाकर
रोप सकते हो उस पर नीम धन गेहूं अमलतास याकि गुलाब
या इनसे अलग
नन्हे-नन्हें प्रेम की नन्ही परिभाषाएँ
अब तो इतना ही याद है कि पंडी जी कुछ कहते थे
समय की इतनी लम्बी पगडंडियों के पार
आज हम ढूंढते हैं बस्ते में छुपाकर लाई वह ध्ूल
वह मिलती है
लोगों के बदरंग चेहरे पर उगे अंकों के रहस्य खोजती हुई
और हमारी खेतिहर बु(ि किताबों के बोझ तले दबी हुई
और नीमकौड़ी जैसे अंक
याकि पहाड़ा
शहर के सबसे बदबूदार परनाले में
पर गनीमत है अनगराहित भाई
और तुम ध्न्य हो सूकर जादो
बची है तुम्हारे पास आज भी पवित्रा ध्ूल
भभूति उपले और सकील की
मन्त्रा की तरह बुदबुदाते हो पहाड़ा
कर आते हो पहाड़ों की सैर रोज ही
और हमारी सुनो
सुन रहे हो न सूकर जादो
आदमी बनने इस शहर में आए हम
अपने पुरखों की हवेली की तरह ढह गये हैं
कि कितने कम आदमी रह गए हैं
गनीमत है अनगराहित भाई
और तू ध्न्य है रे सुकरा
कि तुम्हारे आदमी होने का गवाह
खड़ा है वह बरगद तुम्हारे साथ
और पंड़ी का पहाड़ा आज भी तुम्हें कंठस्थ ह