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नाले पर / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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साफ़ - सुथरी सभ्यता की गन्दगी
अध- मैले लोगों की ज़िन्दगी
ढोता हुआ
नगर में से होता हुआ
बह रहा गन्दगी की
ज़िन्दगी का नाला

उठ रही है नाक में चुभती हुई बदबू ,
नहीं कोई ढांपता पर नाक
नहीं कोई थूकता "आ थू"

गंदे इस नाले पर
अध - टूटा ,अध - खड़ा मकान खड़ा है
जिसके भीतर इक पीला - सा मुखड़ा है ;
जिसकी आँखों में स्थिर आंसू की लहरी ,
जिसकी छाती में मरुस्थल की दोपहरी ;
जिसके आन्तर की राहों पर
दु;खों के आने और जाने से
चिन्ह बने घावों के
पावों के ;
जिसका अति दु;सह दुखड़ा ,
कियोंकि मरता सुकुमार कलेजे का टुकडा
--- नवजात लाल ---
है नोच रहा दारिद्र्य - काल
बन भूख

देख पाते यह कैसे नयन ?'
तभी तो छलकीं पलकें बन्द,
झाँक रहे दो सिकुड़े उरोज - सरोज
बन्धनहीन - स्वछन्द ;
अध - फटे ,पुराने ,मैले कुर्ते से
जिनमें न है मकरन्द;
पर हैं अधीर,

सहसा अब
उस हल्दी- से पीले - पीले चहरे की ,
आँखों में आंसू की धारा घहराई
पलकों के तट को तोड़ - तोड़ बह आई;
शिशु के नन्हें अधरों पर
लघु बूँद - बूँद गिरती है
जल रहे पेट की आग बुझाने को शायद

गंदे इस नाले की
गन्दी इस बस्ती में ,
बेकार , भूख के भाव , जवानी बिकती
पिचकी गालों वाले काले चेहरों में
उपन्यास , कविता अथवा
साकार बोलती हुई कहानी दिखती

( अग्निजा ,१९७८)